
स्वामी विवेकानंद ने एक बार अपने व्याख्यान में कहा था, तुम महान बनना चाहते हो, तो महानता को अपने भीतर घटित होने दो, श्रेष्ठता को अंत:करण में प्रवेश पाने दो, हृदय कपाट को खुला रखो, ताकि इस संसार में जो कुछ उदात्त और अच्छा है, वह तुम में रच-बस सके। याद रखो, मात्र अच्छे शब्द सुनने या बोलने भर से विशेष कुछ न होगा।
जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि श्रवण और अध्ययन आनंददायक तो होते हैं, पर परिवर्तन में इन की भूमिका गणितीय सवालों को हल करने वाले सूत्रों जितनी ही होती है। सूत्र केवल संकेत मात्र होते हैं। विद्यार्थियों को इनके आधार पर अपनी अक्ल लगानी पड़ती है। तभी प्रश्न का सही उत्तर मिल पाता है। ऐसे ही स्वाध्याय और सत्संग-बदलाव के लिए अनुकूलता तो पैदा करते हैं, पर इतना ही पर्याप्त नहीं होता। किसी बदलाव के लिए भीतर की इच्छा और बेचैनी भी उतनी ही आवश्यक है। दुनिया में अच्छी बातों और विचारों का अभाव नहीं है; अभाव है तो मात्र ग्रहणशील हृदय की। यदि आदमी के पास सुग्राही मन हो, तो
बुराई में भी अच्छई ढूंढी जा सकती है। किंतु जहाँ हृदयंगम करने वालीगहराई ही न हो, वहां लाख प्रवचन सुनने, निर्जीवमूर्तियों के सामने माथा टेकने और कथा परायण करने से भी मनोरंजन के अलावा और कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता। अक्सर गुणग्राह्यता की अपनी कमी को छिपाने के लिए हम लोग अनेक प्रकार के बहाने गढ़ते और तर्क देते हैं। हम कहते हैं कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के अभाव में ही हमारे ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़सका। यह सच है कि व्यक्तित्व का और बताने के ढ़ग का भी प्रभाव होता है, परंतु बात यदि अच्छी है तो उसे कोई भी कहे, उसे अपनाने में अनख क्यों? इस से क्या फर्क पड़ता है कि कहने वाला निरक्षर है या विद्वाना अच्छाई कहीं से भी मिले, वह ग्रहण योग्य है। पर ऐसा होता नहीं है। लोग सारा दोष सिखाने वाले को ही देते हैं।
हमारे यहां कहते हैं, गुन ना हिराना गुनगाहक हिराना है। गुणों की कमी नहीं है, गुणों की पहचान करने वाले कम होते जारहेहैं। अमनस्वी समुदाय किसी सत्संग में जाता है, प्रवचन सुनता है और फिर से भूल जाता है। इस प्रकार लंबे समय का उनका ज्ञान ग्रहण बेकार चला जाता है। इससे स्पष्ट है कि ग्रहण करने की इच्छा की अनुपस्थिति और ग्राहय के प्रति उपेक्षा भाव के कारण ही ऐसा होता है। वह ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतरने देते। भागवत पुराण के एकादश स्कंध में बताया गया है कि संत दत्तात्रेय ने पशु पक्षियों व प्रकृति के कई अंगों को गुरु मान कर अनंत शिक्षा ग्रहण की। तब मनुष्यों द्वारा बतलाई गई उत्तम बात को धारण करने में किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? विज्ञानी कहते हैं कि यदि लोहे को सोना और सीसे को चांदी बनाना हो तो एक काम करना पड़ेगा , उनकी परमाणु-संख्या को परिवर्तित करना पड़ेगा। अब कोई ऐसा उपाय हो कि एक तत्व की परमाणु संख्या को लगातार दूसरे तत्व की परमाणु संरचना में बदला जा सके , तो हम लगातार दूसरा तत्व प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य भी यदि किसी तरह से लगातार गुणी बनता रहे तो, उसका साधारण से असाधारण बन जाना कठिन नहीं। फिर समाज को स्वर्ग बनते देर न लगेगी। रूपांतरण संभव है, पर यह सब कैसे किया जाए ? इसकी प्रक्रिया उनके हाथ अभी नहीं लगी है। अभी मात्र सिद्धांत दिया गया है, किंतु केवल सिद्धांत से बदलाव संभव नहीं। इसके लिए प्रक्रिया का होना जरूरी है। व्यक्तित्व निर्माण में पुस्तकों और प्रवचनों की ऐसी ही भूमिका है। वे मार्ग दर्शन कर सकते हैं। उनके आधार पर पुरुषार्थ स्वयं करना पड़ता है।